Wednesday, December 15, 2010

प्राकृतिक चिकित्सा

प्राकृतिक चिकित्सा (नेचुरोपैथी / naturopathy) एक चिकित्सा-दर्शन है। इसके अन्तर्गत रोगों का उपचार व स्वास्थ्य-लाभ का आधार है - 'रोगाणुओं से लडने की शरीर की स्वाभाविक शक्ति' । प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत अनेक पद्धतियां हैं ; जैसे - जल चिकित्सा, होमियोपैथी, सूर्य चिकित्सा, अक्यूपंचर, एक्यूप्रेसर, मृदा चिकित्सा आदि।


प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली चिकित्सा की एक रचनात्मक विधि है, जिसका लक्ष्य प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तत्त्वों के उचित इस्तेमाल द्वारा रोग का मूल कारण समाप्त करना है। यह न केवल एक चिकित्सा पद्धति है बल्कि मानव शरीर में उपस्थित आंतरिक महत्त्वपूर्ण शक्तियों या प्राकृतिक तत्त्वों के अनुरूप एक जीवन-शैली है। यह जीवन कला तथा विज्ञान में एक संपूर्ण क्रांति है। विज्ञान की इतनी प्रगति के बावजूद आज कई लोग प्रकृतिक चिकित्सा पद्धति अपना रहे हैं।

प्राकृतिक चिकित्सा न केवल उपचार की पद्धति है, अपितु यह एक जीवन पद्धति है । इसे बहुधा औषधि विहीन उपचार पद्धति कहा जाता है। यह मुख्य रूप से प्रकृति के सामान्य नियमों के पालन पर आधारित है। जहॉ तक मौलिक सिद्धांतो का प्रश्‍न है इस पद्धति का आयुर्वेद से निकटतम सम्बन्ध है।
प्राकृतिक चिकित्सा के समर्थक खान-पान एवं रहन सहन की आदतों, शुद्धि कर्म, जल चिकित्सा, ठण्डी पट्टी, मिटटी की पट्टी, विविध प्रकार के स्नान, मालिश्‍ा तथा अनेक नई प्रकार की चिकित्सा विधाओं पर विश्‍ोष बल देते है।
  1. मिट्टी चिकित्साः- मिट्टी जिसमें पृथ्वी तत्व की प्रधानता है जो कि शरीर के विकारों विजातीय पदार्थो को निकाल बाहर करती है। यह कीटाणु नाश्‍ाक है जिसे हम एक महानतम औषधि कह सकते है।
  2. मिट्टी की पट्टी का प्रयोगः- उदर विकार, विबंध, मधुमेह, शि‍र दर्द, उच्च रक्त चाप ज्वर, चर्मविकार आदि रोगों में किया जाता है। पीडित अंगों के अनुसार अलग अलग मिट्टी की पट्टी बनायी जाती है।
  3. वस्ति (एनिमा):- उपचार के पूर्व इसका प्रयोग किया जाता जिससे कोष्ट शुद्धि हो। रोगानुसार शुद्ध जल नीबू जल, तक्त, निम्ब क्वाथ का प्रयोग किया जाता है।
  4. जल चिकित्साः-  इसके अन्तर्गत उष्ण टावल से स्वेदन, कटि स्नान, टब स्नान, फुट बाथ, परिषेक, वाष्प स्नान, कुन्जल, नेति आदि का प्रयोग वात जन्य रोग पक्षाद्घात राधृसी, शोध, उदर रोग, प्रतिश्‍याय, अम्लपित आदि रोगो में किया जाता है।
  5. सूर्य रश्‍ामी चिकित्साः- सूर्य के प्रकाश्‍ा के सात रंगो के द्वारा चिकित्सा की जाती है।यह चिककित्‍सा शरीर मे उष्‍णता बढाता है स्‍नायुओं को उत्‍तेजित करना वात रोग,कफज,ज्‍वर,श्‍वास,कास,आमवात पक्षाधात, ह्रदयरोग, उदरमूल, मेढोरोग वात जन्‍यरोग,शोध चर्मविकार, पित्‍तजन्‍य रोगों में प्रभावी हैं।
  6. उपवास- सभी पेट के रोग, श्वास, आमवात, सन्धिवात, त्वक विकार, मेदो वृद्धि आदि में विश्‍ोष उपयोग होता है।


स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए प्राकृतिक तत्वों के संतुलन का प्रयास ही ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ है।
स्वयं प्रकृति का संगठन पंच-महाभूतों से मिलकर हुआ है। ये पंच-महाभूत हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। निश्चित ही प्रकृति ने मानव शरीर की रचना इन्हीं पंच-महाभूतों के योग से की है।

पृथ्वी तत्त्व



पृथ्वी
यह ठोस, भारी, स्थूल तथा रूप और आकार से युक्त है। इस प्रकार मानव शरीर में जो भी ठोस, भारी, स्थूल तथा रूपाकार से युक्त भाग है, सभी कुछ पृथ्वी तत्त्व की देन है। मांस, मज्जा, अस्थि, बाल, नाखून आदि सभी कुछ हमें पृथ्वी तत्त्व की ही देन है। पृथ्वी के इस ठोस तत्त्व को हम मुख द्वारा ग्रहण करते हैं। पृथ्वी विभिन्न प्रकार के खाद्यान्नों का सर्जन करती है-गेहूँ, जौ, चना, मटर, मक्का, बाजारा, दालें, वसा, मिष्टान्न, खनिज लवण, विटामिंस आदि पृथ्वी तत्त्व की ही देन हैं। शरीर में जैसे इन तत्वों की कमी या अधिकता होती है, यह असंतुलन ही विभिन्न प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोग पैदा कर देता है।



जल तत्त्व


जल
यह द्रव रूप में है और पतला होने के कारण अपने आधार पात्र के अनुरूप आकृति ग्रहण कर लेता है। इसमें संचरण का विशेष गुण है। इसी कारण यह अवशोषित भी हो जाता है। शरीर में जो कुछ संचरणशील द्रव पदार्थ है, वह प्रकृति का जलीय अंश ही है। इस अंश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह ठोस पदार्थों को अपने अंदर घोल लेता है। मानव शरीर पृथ्वी तत्त्व के ठोस स्वरूप को यथावत् ग्रहण करने में समक्ष हो जाता है और ये तत्त्व शरीर का निर्माण करने योग्य बन जाते हैं। अतः जल का इस दृष्टि से विशेष महत्त्व है। जल तत्त्व की कमी के कारण शरीर शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता है। जल शरीर के लिए अत्यंत आवश्यक है। शरीर का लगभग 70 प्रतिशत भाग जल ही है शरीर में जल की कमी न हो, इसके लिए दिन भर में आठ-दस लीटर पानी अवश्य पीना चाहिए।



अग्नि तत्त्व



अग्नि
अग्नि तत्त्व तेजस् स्वरूप है। दाहकता अग्नि तत्त्व का मूल गुण है। इसी गुण से यह तत्त्व पृथ्वी तत्त्व और जल तत्त्व को भस्मीभूत करके उन्हें निर्मल बनाता है। पृथ्वी और जल तत्त्व दोनों की
प्रकृति अधोगामी है। ये दोनों तत्त्व ऊपर से नीचे की ओर जाते हैं, जबकि अग्नि तत्त्व अपनी ऊर्ध्वगामी प्रकृति के कारण नीचे से ऊपर की ओर उठता है। प्रकाशित करना तेज के प्रधान गुणों में से एक है। इसी आधार पर यह दीप्त होता है। शरीर में निर्मलता और तेज अग्नि तत्त्व के कारण ही होता है। पृथ्वी और जल तत्त्व से ग्रहण किए गए पौष्टिक पदार्थों को परिपक्व करके शुद्ध रूप में शरीर को देना या पचाना अग्नि तत्त्व का ही कार्य है। अग्नि तत्त्व के अभाव में भोजन और जल शरीर में पच नहीं पाते हैं।




वायु तत्त्व



वायु
वायु तत्त्व का मुख्य गुण गतिशीलता है। अपने इसी गुण के आधार पर वायु तत्त्व संपूर्ण शरीर में संचारित होता है। शरीर में रक्त तथा मल-मूत्रादि पदार्थों की गति भी वायु तत्त्व के कारण ही संभव होती है। वायु की तीव्रता या मंदता अनेक प्रकार के विकार पैदा करती है। इन विकारों के कारण अग्नि द्वारा पोषित पदार्थ शरीर के अपेक्षित अंगों तक नहीं पहुँच पाते हैं या दूषित पदार्थ इन अंगों से नहीं निकल पाते हैं। इस अवस्था में अनेक प्रकार के रोग पैदा हो जाते हैं। श्वसन क्रिया के माध्यम से शरीर को प्रकृति के सीधे संपर्क में रखना और स्वच्छ शीतल तथा गुणकारी वायु से शरीर को जीवन-दान देने का कार्य भी वायु तत्त्व का ही है। सामान्य व्यक्ति वायु के अभाव में तीन मिनट से अधिक जीवित नहीं रह सकता।



आकाश तत्त्व



आकाश
शरीर में जितना भी शून्य या रिक्त स्थान है, वह सब आकाश तत्त्व का अंश माना जाता है। वायु को संचारित होने के लिए, अग्नि को प्रज्वलित होने के लिए, जल को गतिशील होने के लिए तथा पृथ्वी तत्त्व को अवशोषित होने के लिए रिक्त स्थान का होना अपरिहार्य है। इस प्रकार उक्त चारों तत्त्व आकाश तत्त्व में ही प्रतिष्ठित और सक्रिय होते हैं। भोजन को ग्रहण करनेवाली आहार नाल, जल-मिश्रित रक्त को प्रवाहित करने वाली नाड़ियाँ अग्नि को प्रदीप्त करनेवाले अंग और वायु को ग्रहण करनेवाला श्वसन तंत्र आदि सभी रिक्त होने के कारण ही अपने-अपने कार्य कलाप पूरे कर पाते हैं। इस प्रकार आकाश, तत्त्व शरीर के लिए अति महत्त्वपूर्ण है।